अभ्यास के सभी प्रश्नोत्तर
(i). निम्न में से कौन-सा भू-उपयोग संवर्ग नहीं है ?
(क) परती भूमि
(ख) सीमांत भूमि
(ग) निवल बोया गया क्षेत्र
(घ) कृषि योग्य व्यर्थ भूमि
उत्तर-(ख) सीमांत भूमि
(क) वनीकरण के विस्तृत व सक्षम प्रयास
(ख) सामुदायिक वनों के अधीन क्षेत्र में वृद्धि
(ग) वन बढ़ोतरी हेतु निर्धारित अधिसूचित क्षेत्र में वृद्धि
(घ) वन क्षेत्र प्रबंधन में लोगों की बेहतर भागीदारी
उत्तर-(ग) वन बढ़ोतरी हेतु निर्धारित अधिसूचित क्षेत्र में वृद्धि
(क) अवनालिका अपरदन
(ख) वायु अपरदन
(ग) मृदा लवणता
(घ) भूमि पर सिल्ट का जमाव
उत्तर- (ग) मृदा लवणता
(क) रागी
(ख) ज्वार
(ग) मूँगफली
(घ) गन्ना
उत्तर-(घ) गन्ना
(क) जापान तथा ऑस्ट्रेलिया
(ख) संयुक्त राज्य अमेरिका तथा जापान
(ग) मैक्सिको तथा फिलीपींस
(घ) मेक्सिको तथा सिंगापुर
उत्तर- (ग) मैक्सिको तथा फिलीपींस
(I) बंजर भूमि तथा कृषि योग्य व्यर्थ भूमि में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- बंजर भूमि-
वह भूमि जो प्रचलित प्रौद्योगिकी की मदद से कृषि- योग्य नहीं बनाई जा सकती जैसे- बंजर पहाड़ी भूभाग, मरुस्थल आदि।
कृषि योग्य व्यर्थ भूमि-
वह भूमि जो पिछले पाँच वर्षों या अधिक समय तक परती या बिना खेती के रही हो, लेकिन भूमि उद्धार तकनीकों से इसे सुधार कर कृषि योग्य बनाया जा सकता है।
उत्तर- सकल बोया गया क्षेत्र-
वह कुल क्षेत्रफल है जिस पर एक वर्ष में एक या एक से अधिक बार फसलें बोई जाती हैं—यानि यदि किसी भूमि पर एक साल में दो या तीन बार भी फसल बोई जाती है, तो हर बार बोए गए क्षेत्रफल को अलग-अलग गिना जाता है और कुल जोड़ ही सकल बोया गया क्षेत्र कहलाता है।
निवल बोया गया क्षेत्र-
निवल बोया गया क्षेत्र वह भूमि होती है जिस पर वर्ष में केवल एक बार फसल बोई जाती है और फसलें उगाई व काटी जाती हैं। इसे शुद्ध बोया गया क्षेत्र भी कहा जाता है।
उत्तर- भारत जैसे देश में भूमि की कमी तथा श्रम की अधिकता है, ऐसी स्थिति में गहन कृषि नीति की आवश्यकता न केवल भू-उपयोग हेतुवांछित हैं अपितु ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी जैसी आर्थिक समस्या को भी कम करने के लिए आवश्यक है।भारत में निवल बोए गए क्षेत्र में बढ़ोतरी की संभावनाएँ सीमित हैं। अतः भूमि बचत प्रौद्योगिकी विकसित करना आज अत्यंत आवश्यक है।
उत्तर- शुष्क कृषि-
शुष्क कृषि मुख्यतः उन प्रदेशों तक सीमित है जहाँ वार्षिक वर्षा 75 सेंटीमीटर से कम है। इन क्षेत्रों में शुष्कता को सहने में सक्षम फसलें जैसे रागी, बाजरा, मूँग, चना तथा ग्वार आदि उगाई जाती है।
आर्द्र कृषि-
इसमें वे फसलें उगाई जाती हैं जिन्हें पानी की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है।जैसे- चावल, जूट, गन्ना आदि तथा ताजे पानी की जलकृषि भी की जाती है।
(I) भारत में भूसंसाधनों की विभिन्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ कौन-सी हैं? उनका निदान कैसे किया जाए?
उत्तर- भारत में भूसंसाधनों से जुड़ी मुख्य पर्यावरणीय समस्याएँ निम्नलिखित हैं-
1)मृदा अपरदन-
वर्षा जल, पवन और मानव गतिविधियों के कारण ऊपरी मिट्टी की परत बह जाती है जिससे भूमि की उर्वरता कम हो जाती है।
2) लवणीकरण और क्षारीयता –
अधिक सिंचाई और जलभराव के कारण मिट्टी में लवणों का संचय हो जाता है, जिससे भूमि उपजाऊ नहीं रहती।भूमि की गुणवत्ता में कमी: रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अधिक उपयोग से मिट्टी की उर्वरकता घटती है और मृदा विषाक्त होती जाती है।
3) अत्यधिक सिंचाई और जलभराव-
फसलों की अधिक सिंचाई से भूमि में जलभराव होता है जिससे मृदा क्षरण होता है।
4) एक-फसल ही उगाना-
सिर्फ एक ही प्रकार की फसल उगाने से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।
5) मरुस्थलीकरण-
पेड़ों के अंधाधुंध कटाई एवं वर्षा की कमी के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में मरुस्थलीकरण की समस्या भी बढ़ रही है।
इन समस्याओं का निदान करने के लिए उपाय-
1) कुशल सिंचाई विधियों का उपयोग जैसे ड्रिप और फव्वारा सिंचाई करना ताकि जल व्यर्थ न हो और लवणीकरण कम हो।
2)रासायनिक उर्वरकों का संतुलित और सीमित उपयोग, साथ ही जैविक खाद और हरी खाद का प्रयोग बढ़ाना।
3) फसल चक्रण (Crop Rotation) अपनाना जिसमें अलग-अलग फसलें उगाई जाएं ताकि मिट्टी के पोषक तत्व संतुलित रहें।
4)मृदा अपरदन को रोकने के लिए समोच्च रेखीय जुताई, वनीकरण, और रक्षक मेखला जैसी जमीन संरक्षण तकनीकों का अपनाना।
5) जलभराव वाले क्षेत्रों में उचित जल निकास के प्रबंध करना।
6) दोषपूर्ण कृषि प्रणालियों को सुधारना और सही कृषि पद्धतियाँ अपनाना जो पर्यावरण के प्रति अनुकूल हों।
उत्तर- भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् कृषि विकास के लिए कई महत्वपूर्ण नीतियाँ और पहल की गईं, जिनका उद्देश्य खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना, कृषकों का जीवन स्तर सुधारना और कृषि क्षेत्र को आधुनिक बनाना था।मुख्य कृषि विकास नीतियाँ इस प्रकार हैं-
1) भूमि सुधार नीति-
जमींदारी प्रथा, महलवारी, रैयतवारी जैसे पुराने भूमि स्वामित्व प्रणाली को समाप्त किया गया।भूमि वितरण, भूमि सीमा और बंटवारे के नियम बनाए गए ताकि छोटे और मध्यम किसानों को लाभ मिल सके।
2) हरित क्रांति-
1960 के दशक में उच्च उपज वाले बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक और सिंचाई सुविधाओं का उपयोग बढ़ाया गया।गेहूँ और चावल जैसी फसलों का उत्पादन बढ़ा, जिससे खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता में वृद्धि हुई।3)सहकारी आंदोलन-
किसानों के लिए सहकारी समितियाँ स्थापित की गईं ताकि सस्ते कर्ज, बीज, खाद और विपणन सेवाएं मिल सकें।
4)सिंचाई नीति-
बड़े बांध जैसे भाखड़ा-नांगल और हीराकुंड आदि का निर्माण हुआ।नहरों, ट्यूबवेल और छोटे सिंचाई साधनों का विकास किया गया।
5) कृषि अनुसंधान और शिक्षा-
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) और कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किए गए।वैज्ञानिक खेती के तरीकों को बढ़ावा दिया गया।
6) न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP)-
किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू किया गया।
7) सार्वजनिक वितरण प्रणाली(PDS)-
खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विकास किया गया।
8)अन्य योजनाएं-
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, कृषि बीमा योजनाएं और प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना जैसी कई योजनाएं चलाई गईं।इन नीतियों के फलस्वरूप भारत ने खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल की और किसानों के जीवन स्तर में सुधार हुआ। ये नीतियां भारतीय कृषि को पारंपरिक से आधुनिक एवं वैज्ञानिक बनाकर विकास की ओर अग्रसर करने में सहायक रही हैं।